2012/09/27

भारत के साथ रहना चाहता है जम्मू कश्मीर


भारत के साथ रहना चाहता है जम्मू कश्मीर

Source: VSK- KANPUR      Date: 9/25/2012 3:27:47 PM
$img_titleकानपुर, 25 सितम्बर 2012 : जम्मू कश्मीर में 3 भाग हैं : जम्मू, कश्मीर और लद्दाख यदि कश्मीर के 6 जिलों को छोड़ दिया जाए तो शेष जम्मू कश्मीर में कभी भी भारत विरोधी प्रदर्शन नहीं हुआ। वहॉं के लोग भारत के साथ रहना चाहते हैं। यह विचार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सह सम्पर्क प्रमुख अरुण कुमार ने वी.एस.एस.डी. कालेज में जम्मू कश्मीर अध्ययन केन्द्र कानपुर द्वारा आयोजित गोष्ठी में रखे। 

'जम्मू कश्मीर वर्तमान परिदृश्य और भावी दिशा' विषय पर आयोजित चिंतन गोष्ठी में आगे बोलते हुए उन्होंने कहा कि जम्मू कश्मीर में लद्दाख का क्षेत्रफल 59,000 वर्ग किमी. जम्मू का क्षेत्रफल 27,000 वर्ग किमी. है। जब कि कश्मीर का क्षेत्रफल मात्र 15,000 वर्ग किमी. है। अपनी विविधताओं के कारण 1846 से पहले यह तीनों क्षेत्र अलग-अलग राज्य हुआ करते थे। लद्दाख में 62 प्रतिशत बौद्ध तथा कश्मीर में 85 प्रतिशत हिन्दू, सिख, बौद्ध हैं। यदि हम पूरे जम्मू कश्मीर की बात करें तो वहॉं 70 लाख मुसलमान और 50 लाख हिन्दू, बौद्ध व सिख हैं।

जम्मू कश्मीर के 85 प्रतिशत क्षेत्र में आजादी के बाद से आज तक कभी भारत विरोधी प्रदर्शन नहीं हुआ। 15 अगस्त और 26 जनवरी आज भी वहॉं के विशेष पर्वों में से एक हैं। कश्मीर के 5 जिले श्रीनगर, अनंतनाग, कुलवामा, सोफइया और बारामूला जिनका क्षेत्रफल 7 प्रतिशत है, को छोड़ दिया जाए तो शेष कश्मीरी भारत के साथ रहना चाहते हैं। वहॉं का गूजर और राजपूत मुसलमान देशभक्त है उसकी पूरी आस्था भारत के संविधान में हैं। महाराजा हरी सिंह के समय तक जम्मू कश्मीर में 14 देशों के वाणिज्यिक दूतावास थे।  अमेरिका और आस्ट्रेलिया को छोड़कर अन्य सभी देशों से गिलगिट होते हुए सड़क मार्ग से जुड़कर व्यापार करने में समर्थ इस मार्ग को सिल्क रूट के नाम से जाना जाता था।

पाकिस्तान ने किसी भी अंतर्राष्ट्रीय मंच से जम्मू-कश्मीर पर दावा नहीं किया। जब पाक अधिकृत कश्मीर पर पाकिस्तान ने कैंजा जमा लिया था, उस समय भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने यूएनओ की सिक्योरिटी काउन्सिल में इसकी शिकायत की थी। जिस पर 13 अगस्त, 1948 में यूएनओ ने कुछ सुझाव दिये थे। जिसमें उसने कहा था कि पाकिस्तान को अपनी सेनाएँ हटानी चाहिए। आजाद जम्मू कश्मीर की सेना और न्यायालय समाप्त होना चाहिए। विस्थापितों की वापसी होनी चाहिए। भारत आवश्कतानुसार इस क्षेत्र में अपनी सेना रख सकता है। यह सब कुछ यूएनओ के सिद्धान्तों के अनुसार होना चाहिए। यह प्रस्ताव अमल में न आने के कारण रद्द हो गया। बाद में अमेरिका के नियंत्रण वाले यूएनओ में 22 जनवरी, 1957 को इसी विषय पर हुई चर्चा का जवाब भारत की और से कृष्णा मेनन ने 8.5 घंटे के भाषण में दिया था। जिसके बाद फिर कभी भी यूएनओ में चर्चा नही हुई और वहॉं यह विषय समाप्त हो गया।

 संविधान की धारा 370 को लेकर भी हमारे मन में कई भ्रम हैं। यह धारा एक अस्थाई धारा है, जिसे भारत का राष्ट्रपति समाप्त कर सकता है। इस धारा के 3 प्रावधान हैं। जम्मू-कश्मीर में भारत का संविधान कैसे लागू हो इसकी चिंता करना। इसके लिए वहॉं संविधान सभा का गठन करना, जो राष्ट्रपति को अपनी रिपोर्ट देगी। संविधान सभा का कार्य समाप्त होने के उपरान्त राज्य सरकार के अनुमोदन पर राष्ट्रपति इस धारा को समाप्त कर सकते हैं। वास्तव में इस धारा की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि भारत की स्वतंत्रता के समय ब्रिटिश शासित क्षेत्र भारत और पाकिस्तान में विभाजित हो गया| किन्तु उस समय 500 से अधिक स्वतंत्र रियासतें थीं, जिनमें से अधिकांश तो भारत में सम्मिलित हो गईं फिर भी हैदराबाद, मैसूर, जम्मू-कश्मीर सहित 17 रियासतें आजादी के बाद भारत में सम्मिलित हुईं, इन स्वतंत्र रियासतों को बड़े राज्यों में परिवर्तित करके उनसे अपने   प्रतिनिधि संविधान सभा में भेजने के लिए कहा गया था। ये प्रतिनिधि इन राज्यों में चुनाव के उपरांत बनी संसद के द्वारा चुना जाना था। किन्तु ऐसा नहीं हो सका। जम्मू कश्मीर में यह प्रक्रिया पूरी नहीं हो पायी। जिसके कारण धारा 370 का जन्म हुआ। बाद में राजनैतिक कारणों से इस धारा का दुरुपयोग होने लगा।

महाराजा हरी सिंह ने उसी विलयपत्र पर हस्ताक्षर किये थे जिस पर अन्य रियासतों ने हस्ताक्षर किये। पं. नेहरू शेख अब्दुल्ला को जम्मू कश्मीर सौंपना चाहते थे, जिससे महाराजा असहमत थे। इसी कारण जम्मू कश्मीर का विलय भारत में देरी से हुआ और हमें धारा 370 की आवश्यकता पड़ी। इसी शेख अब्दुल्ला ने जम्मू कश्मीर की सत्ता अपने हाथ आने के बाद अमेरिका के इशारे पर 1951 में भारत के संविधान को मानने से इन्कार कर दिया। शेख और नेहरू के बीच समझौता हुआ, जिसमें  उन्होंने नाजायज मांगों को स्वीकार कर लिया। जम्मू कश्मीर में दो निशान, दो संविधान लागू हो गये। इस अनैतिक समझौते के विरुद्ध लद्दाख और जम्मू में बड़ा आन्दोलन चला| जिसमें भाग लेने के लिए जम्मू कश्मीर जाते समय श्यामाप्रसाद मुखर्जी का बलिदान हुआ। किन्तु नेहरू ने इस आन्दोलन को अस्वीकार कर दिया और कहा- "संविधान कुछ नहीं वहां के लोगों की इच्छा सर्वोपरि है। मैं अपने निर्णय पर कायम हूँ।"

अपने मुद्दे को समझाते हुए अरुण कुमार जी ने आगे कहा कि, वास्तव में स्वतंत्रता के बाद से जम्मू और लद्दाख के साथ बहुत अन्याय हुआ है। इसलिए आज हमें दो ही बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है। एक जम्मू कश्मीर के विषय में अधिक से अधिक सही जानकारी कैसे देश और दुनिया तक पहुंचे, जिससे जनजागरण का निर्माण हो। दूसरा पाकिस्तान और चीन के कैंजे में जम्मू कश्मीर का जो भूभाग है, वह भारत को कैसे वापस मिले।

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता भारतीय सेना के अवकाश प्राप्त कर्नल एस. एन. पाण्डेय ने की। कार्यक्रम में मुख्य रूप से डॉ. ईश्‍वर चन्द्र, वीरेन्द्रजीत सिंह, आनन्द जी, मुकेश खाण्डेकर, अरविन्द कुमार आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन अरविन्द दीक्षित ने किया।

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